खाद्य संसाधनों में सुधार

खाद्य संसाधनों में सुधार

खाद्य संसाधनों में सुधार

Class 9 Science Chapter 15. खाद्य संसाधनों में सुधार

पाठ्यपुस्तक NCERT
कक्षा कक्षा 9
विषय विज्ञान
अध्याय अध्याय 15
प्रकरण खाद्य संसाधनों में सुधार

परिचय (Introduction):

➲ सभी जीवित प्राणियों को अपने विकास एवं स्वस्थ्य के लिए भोजन की आवश्यकता होती है।

➲ भोजन के द्वारा हमें पोषक तत्व जैसे कार्बोहाइड्रट, प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिज पदार्थ प्राप्त होते है।

➲ पेड़, पौधे तथा जानवर भोजन के मुख्य स्रोत हैं।

➲ भारत की जनसंख्या लगभग सौ करोड़ से भी ज्यादा है जो लगातार बढ़ रही है।

➲ इस बढ़ती जनसंख्या हेतु अन्न के उत्पादन के लिए फसल तथा पशुधन के उत्पादन की क्षमता बढ़ाना अति आवश्यक है।

➲ भारत में 1904 से 1969 तक अन्न उत्पादन में चार गुणा वृद्धि हुई है। परंतु इसमें सुधार की अभी भी आवश्यकता है।

हरित क्रांति (Green Revolution)– हरित क्रांति कार्यक्रम को नई देशों में अन्न उत्पादन बढ़ाने में चलाया गया। इसमें उत्पादन बढ़ाने के लिए नई तकनीक, उपयुक्त सिंचाई, विकसित जाती के बीजों का इस्तेमाल किया गया।

श्वेत क्रांति (White Revolution)- श्वेत क्रांति कार्यक्रम को भारत में दुग्ध उत्पादन को बढ़ाने के लिए चलाया गया। इसका उद्देश्य भारत को दुग्ध के उत्पादन क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना है।

फसल उत्पादन में सुधार (Improvement in crop yeild)

फसलों के प्रकार (Types of Crops)

➲ फसलों के प्रकार जिनमें हम निम्नलिखित चीजें प्राप्त करते हैं –

(i) अनाज (Cereals)- इनमें गेहूं, चावल, मक्का, बाजरा आदि सम्मिलित है। ये हमें कार्बोहाइड्रेट प्रदान करते हैं।

(ii) बीज (Seeds)– पौधों में पाए जाने वाले सभी बीज खाने योग्य नहीं होते, जैसे- सेब का बीज, तथा चेरी का बीच। खाने वाले बीजों में अनाज, दालें, बीज तथा मूंगफली। ये हमें वसा प्रदान करते हैं।

(iii) दालें (Pulses)– इनमें चना, मटर, (काला चना, हरा चना) तथा मसूर हैं। ये हमें प्रोटीन प्रदान करते हैं।

(iv) सब्जियां, मसाले व फल (Vegetables, Spices and Fruit)– ये हमें विटामिन तथा खनिज लवण प्रदान करते हैं, जैसे– सेब, आम, चेरी, केला, तरबूज, सब्जियां जैसे– पालक, पत्तेदार सब्जियां, मूली, मसाले जैसे– मिर्च, काली मिर्च, जीरा, फसल जैसे- जई, सूडान घास पशुधन के चारे के रूप में उपयोग किया जाता है।

फसल चक्र (Crop Season)

सभी फसलों को अपनी वृद्धि तथा जीवन चक्र करने के लिए अलग-अलग परिस्थितियों (तापमान, नमी) तथा अलग-अलग दीप्तिकाल (सूरज की रोशनी) की जरूरत होती है।

फसलों का मौसम दो प्रकार का होता है।

(1) खरीफ फसल (Kharif Season)– ये फसलें बरसात के मौसम में उगती है। (जून से अक्टूबर तक) उदाहरण- काला चना, हरा चना, चावल, सोयाबीन, धान आदि।

(2) रबी फसल (Rabi Season)– ये फसलें नवंबर से अप्रैल तक के महीने में उगाई जाती है। इसलिए इन्हें सर्दी की फसल भी कहते हैं। उदाहरण– गेहूं, चना, मटर, सरसों, अलसी रबी फसलें हैं।

➲ फसल उत्पादन में सुधार की प्रक्रिया में प्रयुक्त गतिविधियों को निम्न प्रमुख वर्गों में बांटा गया है।

◆ फसल की किस्मों में सुधार

◆ फसल उत्पादन प्रबंधन

◆ फसल सुरक्षा प्रबंधन

1. फसलों के किस्मों में सुधार – फसल की किस्म में सुधार के कारक है अच्छे और स्वस्थ बीजसंकरण (Hybridization)- विभिन्न अनुवांशिक गुणों वाले पौधों के बीच संकरण करके उन्नत गुण वाले पौधे तैयार करने की प्रक्रिया को संकरण कहते हैं।

➲ फसल की गुणवत्ता में वृद्धि करने वाले कारक है।

(i) उच्च उत्पादन (Higher Yield)– प्रति एकड़ फसल की उत्पादकता बढ़ाना।

(ii) उन्नत किस्में (Improved Quality)– उन्नत किस्में, फसल उत्पादन की गुणवत्ता प्रत्येक फसल में भिन्न होती है। दाल में प्रोटीन की गुणवत्ता, तिलहन में तेल की गुणवत्ता और फल तथा सब्जियों का संरक्षण महत्वपूर्ण है।

(iii) जैविक तथा अजैविक प्रतिरोधकता (Biotic and Abiotic resistance)- जैविक (रोग, कीट, तथा निमेटोड) तथा अजैविक (सूखा, क्षारता, जलाक्रांति, गर्मी, ठंड तथा पाला) परिस्थितियों के कारण फसल उत्पादन कम हो सकता है। इन परिस्थितियों को सहन कर सक्ने वाली फसल की हानि कम हो जाती है।

(iv) परिपक्वन काल में परिवर्तन– फसल को उगाने से लेकर कटाई तक कम से कम समय लगना आर्थिक दृष्टि से अच्छा है। इससे किसान प्रतिवर्ष अपने खेतों में कई फसलें उग सकते है।

(v) व्यापक अनुकूलता (Wide Adaptability)- व्यापक अनुकूलता वाली किस्मों का विकास करना विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में फसल उत्पादन को स्थाई करने में सहायक होगा। एक ही किस्म को विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न जलवायु में उगाया जा सकता है।

(vi) ऐच्छिक सस्य विज्ञान गुण (Desired agronomic Traits)- चारों वाली फसलों के लिए लंबी तथा सघन शाखाएं ऐच्छिक गुण है। अनाज के लिए बौने पौधे उपयुक्त हैं ताकि इन फसलों को उगाने के लिए कम पोषकों की आवश्यकता हो। इस प्रकार सस्य विज्ञान वाली किसमें अधिक उत्पादन प्राप्त करने में सहायक होती है।

2. फसल उत्पादन प्रबंधन

➲ किसानों के द्वारा की गई विभिन्न प्रकार की तकनीक इस्तेमाल की जाती है जिससें फसल के उत्पादन में वृद्धि होती है, वे निम्न हैं-

(A) पोषक प्रबंधन (Nutrient Management)

(B) सिंचाई (Irrigation)

(C) फसल को उगाने के तरीके या फसल पैटर्न (Cropping Pattern)

A. पोषक प्रबंधन (Nutrient Management)- दूसरे जीवों की तरह, पौधे को भी वृद्धि हेतु कुछ तत्व (पोषक पदार्थों) की इन्हें ही हम पोषक तत्व कहते हैं। जैसे– कार्बन, ऑक्सीजन, पानी में हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा 13 पोषक तत्व

आधार (Sources)– जहां से पोषक पदार्थ प्राप्त होते हैं वह है- हवा (Air), पानी (Water), मिट्टी (Soil)

वृहत पोषक (Macro Nutrients) – नाइट्रोजन वायु व भूमि से प्राप्त होती है। जो कि अधिक मात्रा में पौधों को आवश्यकता होती है। अन्य है, फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सल्फर आदि।

सूक्ष्म पोषक (Micro Nutrients) – लौह तत्व, मैग्नीज कम मात्रा में आवश्यकता होती है। अन्य है, बोरोन, जिंक, कॉपर, मोलिबडिनम, क्लोरीन आदि।

खाद तथा उर्वरक (Manure and Fertilizer)

➲ मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए खाद तथा उर्वरक की आवश्यकता होती है। फलस्वरुप फसल की उपज में वृद्धि होती है।

खाद (Manure):

◆ यह एक कार्बनिक पदार्थ का अच्छा स्रोत है। यह थोड़ी मात्रा में मिट्टी को पोषक तत्व प्रदान करता है।

◆ यह प्राणी के उत्सर्जित पदार्थ या अपशिष्ट से बनता है तथा पौधों के अपशिष्ट द्वारा अपघटन से तैयार किया जाता है।

खाद के विभिन्न प्रकार (Various forms of Manure)

1. कंपोस्ट खाद (Compost)– पौधे व उनके अवशेष पदार्थों, कूड़े-करकट, पशुओं के गोबर, मनुष्य के मल मूत्र आदि कार्बनिक पदार्थों को जीवाणु तथा कवकों की क्रिया के द्वारा खाद रूप में बदलना कंपोस्टिंग कहलाता है।

2. वर्मी कंपोस्ट खाद (Vermi Compost)– जब कंपोस्ट को केंचुए के उपयोग से तैयार करते हैं उसे वर्मी कंपोस्ट कहते हैं।

3. हरी खाद (Green Manure)– फसल उगाने से पहले खेतों में कुछ पौधे, जैसे – पटसन, मूंग, अथवा ग्वार उगा देते हैं और तत्पश्चात उन पर हल चलाकर खेत की मिट्टी में मिला दिया जाता है। ये पौधे हरी खाद में परिवर्तित हो जाते हैं जो मिट्टी को नाइट्रोजन तथा फास्फोरस से परिपूर्ण करने में सहायक होते हैं।

उर्वरक (Fertilizers)

उर्वरक कारखानों में तैयार किए जाते हैं। यह रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल से बनाए जाते हैं। इनमें अत्यधिक मात्रा में पोषक तत्व, जैसे– नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटेशियम पाए जाते हैं। उर्वरक आसानी से पौधों द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं तथा यह पानी में घुलनशील होते हैं।

खाद तथा उर्वरक में अंतर

खादउर्वरक
1. यह मुख्य रूप से कार्बनिक पदार्थ होते हैं।1. यह अकार्बनिक पदार्थ होते हैं।
2. ये प्राकृतिक पदार्थ के बने होते हैं। 2. यह रासायनिक पदार्थों से मिलकर बनते हैं।
3. खाद में कम मात्रा में पोषक तत्व होते। 3. उर्वरक में अत्यधिक मात्रा में पोषक तत्व पाए जाते हैं।
4. खाद सस्ती होती है तथा घर तथा खेत (मैदानों) में बनाई जा सकती है।4. उर्वरक महंगे तथा फैक्ट्रियों में तैयार किए जाते हैं।
5. खाद्य धीरे-धीरे पौधों द्वारा अवशोषित की जाती है, क्योंकि यह पानी में अघुलनशील होते हैं। 5. आसानी से फसल को उपलब्ध हो जाते हैं, क्योंकि ये पानी में घुलनशील होते हैं।
6.  इसका आसानी से भंडारण तथा स्थानांतरण किया जा सकता है।  6. इसका भंडारण तथा स्थानांतरण विधि सरलता से नहीं किया जा सकता।

B. सिंचाई (Irrigation)

फसलों को जल प्रदान करने की प्रक्रिया को सिंचाई कहते हैं।

सिंचाई के तरीके-

(a) कुएँ (Wells)– यह दो प्रकार के होते हैं –

(i) खुदे हुए कुएँ या खोदे कुएँ (Dug Well)- पानी बैलों के उपयोग द्वारा निकाला जाता है या पंप द्वारा।

(ii) नलकूप (Tube Well)- इस नलकूप में बहुत नीचे पानी होता है। जिससे सिंचाई होती है। मोटर पम्प के इस्तेमाल से पानी ऊपर लाया जाता है।

(b) नेहरे (Canals)– इनमें पानी एक तथा अधिक जलाशयों अथवा नदियों से आता है।

(c) नदी उन्नयन प्रणाली (River Lift System)– इस प्रणाली में पानी सीधे नदियों से ही पम्प द्वारा इकट्ठा कर लिया जाता है। इस सिंचाई का उपयोग नदियों के पास वाले खेत में लाभदायक रहता है।

(d) तालाब (Tanks)– आपत्ती के समय प्रयोग में आने वाले वे छोटे तालाब, छोटे जलाशय होते हैं, जो छोटे से क्षेत्र में पानी का संग्रह करते हैं।

(e) पानी का संरक्षण (Rain Water Harvesting)– वर्षा के पानी को सीधे किसी टैंक में सुरक्षित इकट्ठा कर लिया जाता है बाद में इस्तेमाल के लिए, यह मृदा अपरदन को भी दूर करता है।

वह प्रक्रिया जिसमें पृथ्वी पर गिरने वाले वर्षा जल को रोका जाता है और भूमि में रिसने के लिए तैयार किया जाता है वर्षा जल संग्रहण कहलाती है।

C. फसल उगाने के तरीके (Crop Pattern):

फसल की वृद्धि हेतु अलग-अलग प्रकार के तरीके अपनाए जाते है जिससे कि नुकसान कम से कम तथा उपज अधिक से अधिक हो।

1. मिश्रित खेती (Mixed Cropping)

2. अंतर फसलिकरण (Inter Cropping)

3. फसल चक्र (Crop Rotation)

मिश्रित खेती (Mixed Cropping)– दो या दो से अधिक फसल को एक साथ (एक ही भूमि) में मिश्रित खेती कहलाती है। उदाहरण- गेहूं और चना, गेहूं और सरसों, मूंगफली तथा सूरजमुखी।

अंतर फसलिकरण (Inter Cropping)– अंतर फसलिकरण में दो या दो से अधिक फसलों को एक साथ एक ही खेत में निर्दिष्ट पैटर्न पर उगाते हैं। कुछ पंक्तियों में एक प्रकार की फसल तथा उनके एकांतर में स्थित दूसरी पंक्तियों में दूसरी प्रकार की फसल उगाते हैं। उदाहरण- सोयाबीन + मक्का, बाजरा + लोबिया

फसल चक्र (Crop Rotation)- किसी खेत में क्रमवार पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार विभिन्न फसलों के उगाने को फसल चक्र कहते हैं।

अगर बार-बार एक ही खेत में एक ही प्रकार की खेती की जाती है तो एक ही प्रकार के पोषक तत्व मृदा से फसल द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। बार-बार मृदा से पोषक तत्व फसल द्वारा प्राप्त करने पर एक ही प्रकार के पोषक तत्व समाप्त हो जाते हैं। अतः हमें अलग-अलग प्रकार की खेती करनी चाहिए।

विशेषताएँ (Advantages) –

(i) मिट्टी की गुणवत्ता बनी रहती है।

(ii) ये कीट तथा खरपतवार को नियंत्रित रखते हैं।

(iii) एक बार मिट्टी की उपजाऊ बनाने के बाद कई प्रकार की फसल सुचारू रूप से उगाई जा सकती है।

3.फसल सुरक्षा प्रबंधन (Crop Protection Management)

रोग कारक जीवों तथा फसल को हानि पहुंचाने वाले कारकों से फसल को बचाना ही फसल संरक्षण है।

नीचे दिए गए तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं। इस प्रकार की कठिनाइयों से बचने के लिए–

1. कीट व पीड़क नाशी फसल की वृद्धि के समय (Pest control during growth)

2. अनाज के भंडारण में (Storage of Grains)

1. पीड़कनाशी (Pest control during growth)– जीव जो फसल को खराब कर देते हैं। जिससे वह मानव उपयोग के लायक नहीं रहती पीड़क खलत्व हैं।

पीड़क कई प्रकार के होते हैं –

(i) खरपतवार (Weeds)- फसल के साथ-साथ उगने वाले अवांछनीय पौधे खरपतवार कहलाते हैं। उदाहरण– जेन्थियम, पारथेनियम

(ii) कीट (Insects)– कीट भिन्न प्रकार से फसल तथा पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। वे जड़, तना तथा पत्तियों को काट देते हैं। पौधों के विभिन्न भागों के कोशा रस को चूसकर नष्ट कर देते हैं।

(iii) रोगाणु (Pathogens)- कोई जीव जैसे – बैक्टीरिया, फंगस तथा वायरस जो पौधों में बीमारी पैदा करते हैं, रोगाणु कहलाते हैं। ये पानी, हवा तथा मिट्टी द्वारा पहुंचते हैं।

अनाज का भंडारण (Storage of Grains):

पूरे साल मौसम के अनुकूल भोजन प्राप्त करने के लिए अनाज को सुरक्षित स्थान पर रखना अनिवार्य है, परंतु भंडारण के समय अनाज कितने ही कारणों से खराब और व्यर्थ हो जाता है जैसे –

1. जैविक कारक (Biotic Problem)- जीवित प्राणियों के द्वारा जैसे– कीट, चिड़िया चिचड़ी, बैक्टीरिया, फंगस (कवक)।

2. अजैविक कारक (Abiotic Problem)- निर्जीव कारकों द्वारा जैसे– नामी, तापमान में अनियमितता आदि।

ये कारक फसल की गुणवत्ता तथा भारत में कमी, रंग में परिवर्तन तथा अंकुरण के निम्न क्षमता के कारण है।

कार्बनिक खेती (Organic Farming) 

कीटनाशक तथा उर्वरक का प्रयोग करने से करने के इसके अपने ही दुष्प्रभाव हैं । ये प्रदूषण फैलाते हैं। लंबे समय के लिए मिट्टी की उपजाऊ गुणवत्ता को कम करते हैं।

जो हम अनाज, फल तथा सब्जियां प्राप्त करते हैं उनमें हानिकारक रसायन मिले होते हैं। ऑर्गेनिक खेती में न या न के बराबर कीटनाशक तथा उर्वरक का इस्तेमाल किया जाता है। अनाज को सुरक्षित भंडार गृह तक पहुंचाने से पहले अनाज को सुरक्षित रखने का विभिन्न उपाय जो कि भविष्य में इस्तेमाल हो वे निम्नलिखित हैं।

(i) सुखाना (Drying)- सूरज की रोशनी में अच्छी तरह से सुखा लेने चाहिए।

(ii) सफाई का ध्यान रखना (Maintenance of hygiene)- अनाज में कीड़े नहीं होने चाहिए, गोदामों को अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए। छत, दीवार तथा फर्श में कहीं अगर दरार है तो उनकी अच्छी तरह से मरम्मत कर देनी चाहिए।

(iii) धूमक (Fumigation)- गोदाम तथा भंडारण गृह पर जिस बीज में कवकनाशी और कीटनाशी का प्रयोग करना आवश्यक होता है।

(iv) भंडारण उपकरण (Storage Devices)- कुछ भंडारण उपकरण जैसे पूसा धानी, पूसा कोठार, पंत कुठला आदि उपकरण एवं संरचनाएं अपननी चाहिए। साफ तथा सूखे दाने को प्लास्टिक बैग में सुरक्षित रखना चाहिए। तो इनमें वायु, नमी, तापक्रम का प्रभाव नहीं होता। बाहर के वातावरण का कोई प्रभाव नहीं होता।

पशुपालन (Animal Husbandry):

घरेलू पशुओं को वैज्ञानिक ढंग से पालने को पशुपालन कहते हैं। यह पशुओं के भोजन, आवास, नस्ल सुधार तथा रोग नियंत्रण से संबंधित है।

पशुपालन के प्रकार

1. पशु कृषि (Cattle Farming):

➲ पशु कृषि का मुख्य उद्देश्य–

◆ दुग्ध प्राप्त करने के लिए

◆ खेत को जोतने के लिए

◆ यातायात में बैल का प्रयोग हेतु

पशु कृषि के प्रकार (Types of Cattle):

(1) गाय (Cow)- बॉस इंडिकस (Bos Indicus)

(2) भैंस (Buffalo)- बॉस बुबेलिस (Bos Bublis)  

दूध देने वाली मादा (Milk Animals)– इनमें दूध देने वाले जानवर सम्मिलित होते हैं, जैसे- मादा पशु

हल चलाने वाले जानवर (Drought Animals)– वह जानवर जो दूध नहीं देते तथा कृषि में कार्य करते हैं, जैसे- हल चलाना, खिंचाई, बोझा ढोना।

दुग्ध स्त्रवन काल (Lactation Period)- जन्म से लेकर अगली गर्भधान के बीच के समय से जो दुग्ध उत्पादन होता है, उसे दुग्ध स्त्रवन काल कहते हैं।

पशुओं की देखभाल (Care of Cattle)

1. सफाई (Cleanliness)

◆ पशुओं की सुरक्षा के लिए हवादार तथा छायादार स्थान होना चाहिए।

◆ पशुओं की चमड़ी की लगातार कंघी ब्रशिंग होनी चाहिए।

◆ पानी इकट्ठा ना हो इसके लिए ढलान वाली पशु आश्रय होने चाहिए।

2. भोजन (Food)

◆ भूसे में मुख्य रूप से फाइबर होना चाहिए।

◆ गाढ़ा प्रोटीन होना चाहिए।

◆ दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए खाने में विटामिन तथा खनिज होने चाहिए।

बीमारी:

पशुओं की मृत्यु हो सकती है। जो दुग्ध उत्पादन को प्रभावित कर सकते हैं। एक स्वस्थ पशु नियमित रूप से खाता है और ठीक ढंग से बैठता व उठता है। पशु के बाह्य परजीवी तथा अंतः परजीवी दोनों ही होते हैं। बाह्य परजीवी द्वारा त्वचा रोग हो सकते हैं। अतः परजीवी अमाशय, आँत तथा यकृत को प्रभावित करते हैं।

बचाव– रोगों से बचाने के लिए पशुओं को टीका लगाया जाता है। यह रोग बैक्टीरिया तथा वायरस के कारण होते हैं।

2. मुर्गी पालन (Poultry Farming):

अंडे तथा कुक्कुड़ मास के उत्पादन को बढ़ाने के लिए मुर्गी पालन किया जाता है। दोनों हमारे भोजन में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाते हैं।

ब्रोलर्स (Broilers)– जब ब्रोलर्स चूजों को मांस के लिए पाला जाता है, तो उसे ब्रोलर्स कहते हैं। ये जन्म के 6 से 8 हफ्तों के अंदर इस्तेमाल किए जाते हैं।

लेअर (Layers)– जब कुक्कुट को अंडों के लिए पाला जाता है उसे लेअर कहते हैं। ये जन्म के 20 हफ्तों बाद इस्तेमाल किए जाते हैं। जबकि ये लैंगिक परिपक्वता के लायक हो जाते हैं। जिसके फलस्वरूप अंडा प्राप्त होते हैं।

➲ मुर्गियों को निम्नलिखित विशेषताओं के कारण जनन करके नई-नई किस्में विकसित की जाती है –

◆ चूजों की संख्या अधिक व किस्म अच्छी होती है।

◆ कम खर्च में रख-रखाव

◆ छोटे कद के ब्रोलर माता-पिता द्वारा चूजों के व्यवसायिक उत्पादन हेतु।

◆ गर्मी अनुकूलन क्षमता। उच्च तापमान को सहने की क्षमता। अंडे देने वाले तथा ऐसी क्षमता वाले पक्षी जो कृषि के उपोत्पाद से प्राप्त रस्ते रशेदार आहार का उपयोग कर सकें।

3. मछली उत्पादन (Fish Production):

हमारे भोजन में प्रोटीन का मछली मुख्य स्रोत है। मछली का उत्पादन दो प्रकार से होता है।

(1) पंख युक्त मछलियां (Finned Fish Production or True Fish Production)- स्वच्छ जल में कटला, रोहू, मृगल, कॉमन कार्य का संवर्धन किया  जाता है।

(2) कवचीय मछलियां (Unfinned Fish Production)– जैसे– प्रॉन, मोलस्का सम्मिलित है।

➲ मछलियों को पकड़ने के विभिन्न तरीकों के आधार पर मछलियां प्राप्त करने के दो प्रकार है-

(i) प्राकृतिक स्रोत (जिसे मछली पकड़ना कहते हैं)– विभिन्न प्रकार के जलीय स्रोतों से प्राकृतिक जीवित मछलियां पकड़ी जाती है।

(ii) स्रोत मछली पालन या मछली संवर्धन (Culture Fishing):

जल संवर्धन (Aqua Culture)- समुद्री संवर्धन में मछली प्राप्त करना। यह समुद्र तथा लैगून में किया जाता है। कम खर्च करके अधिक मात्रा में इच्छित मछलियों का जल में संवर्धन किया जाता है, इसे जल संवर्धन कहते हैं।

भविष्य में मछली समुद्री मछलियों का भंडार (store) कम होने की अवस्था में इन मछलियों की पूर्ति संवर्धन के द्वारा हो सकती है इस प्रणाली को समुद्री संवर्धन (Mari culture) कहते हैं।

समुद्री मत्स्यकी (Marine Fishing):

समुद्री मत्स्यकी के अंतर्गत मछली संवर्धन, तालाबों, नदियों तथा जलभराव में किया जा सकता है। सर्वाधिक समुद्री मछलियां प्रॉमफ्रेट, टुना सारजइन तथा बोबेडक है। कुछ आर्थिक महत्व वाली समुद्री मछलियों का समुद्री जल में संवर्धन भी किया जाता है। इनमें प्रमुख हैं– मुलेट, भेंटकी, पर्लस्पाट (पंख युक्त मछलियां), कवचीय मछलियां जैसे- झींगा (Prawn), मस्सल तथा ऑएस्टर।

सैटेलाइट तथा प्रतिध्वनि, ध्वनित्र से खुले समुद्र में मछलियों के बड़े समूह का पता लगाया जा सकता है।

अंतः स्थली मत्स्यकी (Inland Fishing):

मछली संवर्धन ताजे जल में होता है, जैसे– तालाब, नदियां, नाले तथा जल भराव स्थल पर

मिश्रित मछली संवर्धन (Composite Fish Culture):

➲ एक ही तालाब में लगभग 5 से 6 प्रकार की मछलियों का संवर्धन।

➲ इसका चयन इस प्रकार किया जाता है कि यह भोजन के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं करती। क्योंकि इनके आहार भिन्न-भिन्न होते हैं।

उदाहरण- कटला (Catla)- जल की सतह से भोजन लेती है।

रोहू (Rohu)- तालाब के मध्य क्षेत्र से अपना भोजन लेती है।

मृगल (Mrigals)- कॉमन कर्प तालाब की तली से भोजन लेती है।

लाभ- अधिक पैदावार

समस्याएं- समस्या यह है कि इनमें कई मछलियां केवल वर्षा ऋतु में ही जनन करती है। जिसके फलस्वरूप अधिकतर मछलियां तेजी से वृद्धि नहीं कर पाती। इस समस्या से बचने के लिए हार्मोन का प्रयोग किया जाता है ताकि किसी भी समय मछली जनन के लिए तैयार हो।

मधुमक्खी पालन (Bee Keeping):

यह वह अभ्यास है जिसमें मधुमक्खियों की कॉलोनी को बड़े पैमाने पर रखा व संभाला जाता है और उनकी देखभाल करते हैं ताकि बड़ी मात्रा में शहद तथा मोम प्राप्त हो सके।

अधिकतर किसान मधुमक्खी पालन अन्य आय स्रोत के लिए इस्तेमाल करते हैं। मधुमक्खी पालन या एपिअरि (Apiary) बहुत बड़ी प्रकार है।

एपिअरि (Apiary)– एपिअरि एक ऐसी व्यवस्था है जिससे अधिक मात्रा में मधुमक्खी के छत्ते मनचाही जगह पर अनुशासित तरीके से इस प्रकार रखे जाते हैं कि इससे अधिक मात्रा में मकरंद तथा पराग एकत्र हो सके।

➲ कुछ भारतीय मधुमक्खियों के प्रकार इस प्रकार है–

(1) एपिस सेरेना, इंडिका (Indica), सामान्य भारतीय मधुमक्खी।

(2) एपिस डोरसटा (एक शैल मधुमक्खी), एपिस फ्लोरी (छोटी मधुमक्खी)

➲ यूरोपियन मधुमक्खी भी भारत में इस्तेमाल की जाती है। इसका नाम है एपिस मेलिफेरा (Apis Mellifeera)। इस मधुमक्खी के निम्न लाभ है–

(i) ज्यादा शहद एकत्रित करने की क्षमता

(ii) जल्दी प्रजनन क्षमता

(iii) कम डंक मारती है

(iv) लंबे समय तक निर्धारित में रह सकती है

शहद (Honey):

◆ यह एक गाढ़ा, मीठा तरल पदार्थ है।

◆ यह औषधीय प्रयोग में लाया जाता है तथा शर्करा के रूप में भी प्रयोग होता है।

◆ इसे ताकत (ऊर्जा) प्राप्त करें के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।

चरागाह (Pasturage):

मधुमक्खियां जिन स्थानों पर मधु एकत्रित करती है उसे मधुमक्खी का चरागाह कहते हैं। मधुमक्खी पुष्पों से मकरंद तथा पराग एकत्र करती है।

चरागाह में पुष्पों की किसमें शहद के स्वाद तथा गुणवत्ता को प्रभावित करती है। उदाहरण- कश्मीर का बादाम शहद बहुत स्वादिष्ट होता है।

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