गणित का इतिहास, भारतीय गणितज्ञों के विशेष संदर्भ में

गणित का इतिहास, भारतीय गणितज्ञों के विशेष संदर्भ में

गणित का इतिहास, भारतीय गणितज्ञों के विशेष संदर्भ में

गणित का इतिहास (History of Mathematics):

गणित शास्त्र का विकास हजारों वर्ष पूर्व हुआ था। प्रागौतिहासिक काल से 21वीं सदी तक गणित के क्षेत्र में अत्यधिक विकास हुआ है। गणित के क्षेत्र में बेबीलोन, मिश्र, ग्रीक, चीन, तथा भारतीय गणितज्ञों ने अभूतपूर्व योगदान दिया है। प्राचीन काल में गणित के क्षेत्र में योगदान करने वाले में पाईथगोरस, फिबोनची, आर्यभट, यूक्लिड, आर्किमीडीज, रेने डेकर्ते कुछ महत्वपूर्ण गणितज्ञ है।  

हमारे देश में प्रारंभ से ही गणित कों बहुत ही महत्वपूर्ण विषय माना जाता रहा है शायद इसी कारण उन्होंने प्रारंभ से ही गणित के विकास पर विशेष ध्यान दिया। जब अरब एवं यूरोपीय देशों में गणित का ज्ञान नगण्य था तब तक भारत इस क्षेत्र में महान उपलब्धियां हासिल कर चुका था इस संदर्भ में यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि 12वीं शताब्दी तक भारत गणित के क्षेत्र में विश्व का ज्ञान गुरु था।

भारतीय गणित का इतिहास (History of Indian mathematics):

भारतीय गणित का इतिहास कों जानने या समझने की सुविधा के लिए इसे मुख्यतः पाँच कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है। 

1. आदिकाल (500 ई. पू. तक):

आदिकाल के दो प्रमुख विभाजन है जिनमें भारतीय गणित का इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस काल में अंकगणित, बीजगणित एवं रेखागणित का विकास किया जा चुका था।

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(क) वैदिक काल (100 ई. पू. तक):

वेदों में संख्याओं और दाशमिक प्रणाली का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस काल में शून्य तथा ‘दाशमिक स्थानमान’ पद्धति का आविष्कार गणित के क्षेत्र में भारत की अभूतपूर्व देन है। यह ज्ञात नहीं है की शून्य का आविष्कार कब और किसने किया, किन्तु इसका प्रयोग वैदिक काल में होता रहा है।

शून्य एवं दाशमिक स्थान मान पद्धति का महत्व इसी से परिलक्षित होता है की आज यह पद्धति सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित है तथा इसी के आविष्कार ने गणित एवं विज्ञान कों प्रगति के उन्नत शिखरों तक पहुंचाया है।

दाशमिक स्थानमान पद्धति भारत से अरब गई और अरब से पश्चिमी देशों में पहुंची। यही काल है कि अरब के लोग 1 से 9 को हिन्दी अरबीक न्यूमरल्स (IndoArabic Numerals) कहा जाता है।

(ख) उत्तर वैदिक काल (1000 ई. पू. से 500 ई. पू. तक):

(i) शुल्व एवं वेदांग ज्योतिष काल:

शुल्व वह रज्जु (रस्सी) होती थी, जो यज्ञ की वेदी बनाने की लिए माप में काम आती थी। शुल्व सूत्रों में रेखागणित के सूत्रों का विकास एवं विस्तार उपलब्ध है।

इस काल में तीन सूत्रकारों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है- बोधायन, आपस्तम्ब और कात्यायन। इनके अतिरिक्त मैत्रायण, वाराह, मानव एवं बाधुल इस काल के प्रसिद्ध सूत्रकार है। इनकी रचनाएं इनके शुल्व -सूत्रों के रूप में मिलती है।

बौधायन शुल्व-सूत्र (1000 ई. पू.) में जिस प्रमेय का उल्लेख है, उसे आज पाईथागोरस प्रमेय के नाम से जाना जाता है।  इसी के आगे बौधायन ने दो  वर्गों के योग और अन्तर के बराबर वर्ग बनाने की विधि दी है और करणीगत सांख्या का मान दशमलव के पाँच स्थानों तक निकालना भी बताया है।

इसी काल में ज्योतिष का भी विकास हुआ जिसके कारण शुल्व काल को वेदाांग ज्योतिष काल भी कहा जाता है। वेदांग ज्योतिष (1000 ई.पू.) के अध्ययन से ज्ञात होता है की उस समय ज्योतिषयों को अंकगणितीय मूल संक्रियाओं योग, भाग, गुना आदि का ज्ञान था।

(ii) सूर्य प्रज्ञप्ति काल:

जैन साहित्यों में तत्कालीन गणित का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। इस काल की प्रमुख कृतियाँ- सूर्य प्रज्ञप्ति तथा चंद्र प्रज्ञप्ति (500 ई. पू.) है, जो जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ है।

सूर्य प्रज्ञप्ति में दीर्घ वृत का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है ‘दीर्घ (आयत) पर बना परिवृत’ जिसे परिमंडल के नाम से जाना जाता था। अतः भारतीयों कों दीर्घ वृत का ज्ञान मिनमैक्स (350 ई.पू.) से पूर्व ही हो चुका था। उल्लेखनीय है कि भगवती सूत्र (300 ई.पू.) में भी ‘परिमंडल’ शब्द दीर्घ वृत के लिए प्रयुक्त किया किया है जिसके दो प्रकार बताये गये हैं –

(a) प्रतर परिमण्डल (b) घन परिमण्डल

गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का सराहनीय योगदान रहा है। उन्होंने भिन्न तैशाशिक व्यवहार तथा मिश्रिानुपात, लेखन पद्धति, बीजगणितीय समीकरण, विविध श्रेणियाँ क्रमचय-सांचय, समुच्चय सिद्धांत, घाताांक एवं लघुगणक के नियम आदि विषयों पर प्रकाश डाला है। जॉन नेपियर (1550-1617 ई.) के बहुत पहले लघुगणक का आविष्कार एवं विस्तृत अनुप्रयोग भारत में हो चुका था।

बौद्ध साहित्य में भी गणित को पर्याप्त महत्व दिया गया है। इसमें गणित गणना तथा सांख्यान (उच्चगणित) को दो भागों में बाँटा गया है। सांख्याओं का वर्णन तीन रूपों, संख्येय (ब्वनदजांइसम), असंख्येय (न्दबनदजांइसम) तथा अनंत (प्दपिदपजम) में किया है।

2. पूर्वमध्य काल (500 ई. पु. से 400 ई. तक):

इस काल में लिखी गयी पुस्तकों वक्षाली गणित, सूर्य सिद्धांत और गणित अनुयोग के कुछ पन्नों को छोड़कर शेष कृतियाँ काल कवलित हो गयी। किन्तु इन पन्नों से और मध्ययुगीन आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त आदि के उपलब्ध साहित्य से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस काल में भी गणित का विकास पर्याप्त रूप से हुआ था। अनुयोगद्वार, स्थानांग सूत्रभगवतीसूत्र इस युग के प्रमुख ग्रांथ हैं। इनके अतिरिक्त जैनाचार्य उमास्वती (135 ई. पू.) की कृति तत्वर्थाधिगम सूत्र भाष्य एवं आचार्य यतिवृषम (176 ई. के आस-पास) की कृति तिलोयपन्नती भी इस काल काल के प्रसिद्ध जैन ग्रांथ हैं।

3. मध्यकाल अथवा स्वर्णकाल (400 ई. से 1200 ई. तक):

गणित का इतिहास में, मध्यकाल कों भारतीय गणित का स्वर्ण युग कहा जाता है क्योंकि इस काल में आर्यभट्ट (प्रथम व द्वितीय), ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, भास्कर, महावीराचर्या जैसे अनेक महान एवं श्रेष्ट गणितज्ञ हुए। वेदों में जो सिद्धांत, नियम एवं विधियाँ सूत्र रूप में है वे इस युग में जन साधारण के समक्ष आयी।

आर्यभट्ट (Aryabhata):

आर्यभट्ट (476–550 ई.) प्राचीन समय के सबसे महान खगोलशास्त्रीयों और गणितज्ञों में से एक थे। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आर्यभटिया’ को कविता के रूप में लिखा। ‘आर्यभटिया’ में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के 33 नियम भी दिए गए हैं। उनके दो प्रमुख योगदान हैं शून्य का परिचय और दशमलव के 4 अंकों तक पाइ (π) के अनुमानित मान की गणना।

आर्यभट्ट ने साइन (Sine) की अवधारणा पर भी चर्चा की तथा त्रिभुज के क्षेत्रफल का सूत्र [ 1/2 x लम्बाई x चौड़ाई ] का गणना किया। बीजगणित में उन्होंने वर्गों (Square) और क्यूब्स (Cubes) की श्रृांखला का सार बताया और ax – by = c प्रकार के समीकरणों को हल किया है।

मध्यकाल के ‘निकोलस कॉपरवनिकस’ का यह सिद्धांत कि, पृथ्वी गोल है और वह अपनी धुरी पर घूमती है जिस कारण दिन व रात होता है, प्रतिपादित करने के लगभग एक हज़ार साल पहले ही आर्यभट्ट ने यह खोज कर ली थी कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानत: 24835 मील है।

इस महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ को यह भी ज्ञात था कि चंद्रमा और दूसरे ग्रह सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होते हैं। आर्यभट्ट ने अपने सूत्रों से यह सिद्ध किया की एक वर्ष में 366 दिन नहीं वरन 365.2951 दिन होते हैं।

ब्रह्मगुप्त (Brahmagupta):

ब्रह्मगुप्त (598-668 ई.) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं गणित ज्योतिष के बहुत बड़े आचार्य थे। आर्यभट्ट के बाद भारत के पहले गणित शास्त्री ‘भास्कराचार्य प्रथम’ थे। उसके बाद ब्रह्मगुप्त हुए। ब्रह्मगुप्त खगोल शास्त्री भी थे और जिसने ‘शून्य’ (0) के उपयोग के नियम खोजे थे।

इनके ग्रन्थों में सर्वप्रसिद्ध हैं, ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ और ‘खण्ड-खाद्यक’। ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमे शून्य का एक विभन्न अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है।

ब्रहगुप्त ने दुनिया को धनात्मक संख्या एवं शून्य (zero) का सिद्धांत दिया। उन्होंने द्विघात समीकरण को हल करने का तरीका बताया। तथा चक्रीय चतुर्भुज का क्षेत्रफल, अर्ध परिमिति (semi-perimeter) की मदद से निकाला।

उन्होंने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रहगुप्त को संख्यात्मक विश्लेषन (Numerical Analysis) का जनक माना जाता है।

4. उत्तरमध्य काल (1200 ई. से 1800 ई. तक):

गणित का इतिहास में इस काल की प्रमुख देन ‘प्राचीन ग्रंथों पर टिकाएं’ है। केरल के एक गणितज्ञ नीलकण्ठ ने 1500 ई. में ज्या का मान ज्ञात किया उनके अनुसार इस सूत्र का उल्लेख मलयालम पाण्डलेख ‘मुक्तिभास’ में भी किया गया है जिसे हम ग्रेगरी श्रेणी के नाम से जानते है।

इस काल में नारायण पंडित (1356 ई.), निलकण्ठ (1587 ई.), कमलाकर (1608 ई.) तथा सम्राट जगन्नाथ (1731 ई.) नामक गणितज्ञ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

5. वर्तमान काल (1800 ई. के पश्चात):

इस युग में गणित के क्षेत्र में महत्वपूर्ण अनुसंधान तथा सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ जिससे गणित की नवीन दिशा प्राप्त हुई। इस युग मे श्री रामानुजन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। रामानुजन के अतिरिक्त इस युग में नृसिंह बापू देव शास्त्री (1831 ई.), स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जी महाराज (1884-1960 ई.) तथा सुधाकर द्विवेदी के नाम प्रमुख हैं

श्रीनिवास रामानुजन आयंगर:

श्रीनिवास  रामानुजन् (22 दिसम्बर 1887– 26 अप्रैल 1920) आधुनिक काल के एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषन एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।

रामानुजन के कार्यों में प्रमुख संख्या सिद्धांत (Number Theory), गणितीय विश्लेषन, स्ट्रिंग सिद्धांत और क्रिस्टलोग्राफी के योगदान के लिए जाना जाता है। इन्होंने शून्य और अनन्त को हमेशा ध्यान में रखा और इसके अंतर्सम्बन्धों को समझाने के लिए गणित के सूत्रों प्रतिपादित किया।  

उन्होंने 32 साल की कम उम्र में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया जो किसी को भी आश्चर्य चकित कर सकते हैं। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है।

नृसिंह बापू देव शास्त्री:

नृसिंह बापू देव शास्त्री (1831 ई. ) ने भारतीय एवं पाश्चात्य गणित पर पुस्तकों का सृजन किया। इनकी पुस्तकों में रेखागणित, त्रिकोणमिति, सायनवाद तथा अंकगणित मुख्य है।

स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जी महाराज:

एक महान गणितज्ञ एवं दार्शनिक स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जी महाराज (1884-1960 ई. ) आधुनिक युग में वैदिक गणित के प्रधान हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक “वैदिक गणित ” में वैदिक सूत्रों को प्रतिपादित किया है और उनमें निहित सिद्धांत और विधियों को सरल, सुग्राही एवं सुस्पष्ट भाषा में प्रस्तुत किया है।

इनकी पुस्तक वैदिक गणित एक प्रमाणिक ग्रंथ है। स्वामी जी ने अपनी इस अनुपम कृति के माध्यम से वैदिक गणित में छिपी हुई अद्भुत क्षमता से परिचय कराकर गणित के केवल सामान्य विद्यार्थी को ही नहीं अपितु अधिकारी विद्वानों के अन्तः करण की भी झंकृत कर दिया है।

सुधाकर द्विवेदी:

सुधाकर द्विवेदी ने दीर्घ वृत लक्षण, गोलीय रेखागणित, समीकरण मीमांसा चलन-फलन आदि अनेक पुस्तकों की रचना की है। साथ ही ब्रह्म गुप्त एवं भास्कर की पुस्तकों पर टीकाएँ लिखकर सामान्य जनता के लिए सुलभ कराया।

उपर्युक्त कथन एवं तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत में गणित का विकास अन्य विषयों के साथ शनैः शनैः होता रहा है। आधुनिक युग में गणित बहुत अधिक विकसित हो चुका है तथा गणित शिक्षण की जो व्यवस्था है वह अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी है।

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